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पेड़-पौधों की दुनिया : हरसिंगार (शिउली)


 पेड़- पौधों की दुनिया
 हरसिंगार (शिउली)


ज़रा सोचकर बताईये तो चंपा, चमेली, जूही, रजनीगंधा और हरसिंगार के फूलों में क्या समानता है ? शायद आप ने कहा कि रंग ! जी हाँ, इन सभी फूलों का रंग सफ़ेद है।  निर्मल, शुद्ध और उजला श्वेत रंग जो हर तरह की मिलावट से दूर है। और कोई बात जो इनमें मिलती जुलती हो ? जी हाँ, इन फूलों की मंत्र मुग्ध कर देने वाली सुगंध। ऐसा शायद ही कभी किसी के साथ हुआ हो कि उन्होंने ये छोटे- छोटे मन मोह लेने वाले सफ़ेद फूलों से लदे  वृक्षों अथवा पौधों को  न देखा हो क्यूंकि उनकी सुंदरता को एकबार के लिए नज़रअंदाज़ कर भी दें परन्तु इन फूलों की बेहद आकर्षक खुशबू से  कोई नहीं बच सकता। इनकी सुगंध अनायास ही सबको अपनी तरफ आकर्षित करती  है। इनमें से ही जिसके बारे में आज मैंने लिखने का मन बनाया है वो है हरसिंगार। 

शुरू करने से पहले एक बात पूछती चलूँ और अगर इसके बारे में आपकी राय भी पता चल जाये तो बहुत बढ़िया रहेगा ! दरअसल ये एक सवाल है, क्या ये कहना सही है कि किताबों, कहानियों, गानों और कविताओं का  हमारी सोच, जिज्ञासा और विचारधारा पर बहुत असर पड़ता है ?  मेरे हिसाब से तो इसका जवाब हाँ होना चाहिए ! हाँ इसलिए क्यूंकि मुझे अपने ऊपर इसका प्रभाव दिखा है। मेरे स्वयं की विचारधारा पर इनका असर रहा है। बचपन से ही मुझे प्रकृति से जुड़ी फिल्मों, कहानियों, किताबों, कविताओं ने किसी चीज़ को जानने की अनुप्रेरणा दी है। मैंने कई नैसर्गिक चीज़ों के बारे में जानना  इसलिए शुरू किया क्यूंकि मैंने या तो उसके बारे में पढ़ा है या सुना है या फिर फिल्मों में देखा है। आपका इस बारे में क्या कहना है? यदि आप सहमत नहीं हैं तो अपने विचार मुझ तक ज़रूर पहुंचाएं। तो ऐसे ही बचपन में सुने एक बंगाली गाने ने मेरा परिचय करवाया इस पेड़ से जिसके बारे में मैं लिखने जा रही हूँ। मैंने एक बंगाली गाना सुना था जिसका हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार से है - 'शिउली के वृक्ष के नीचे सुबह-सवेरे गाँव की लड़की फूल चुन रही है जिसकी मनमोहक खुशबु से उसका मन प्रफुल्लित हो रहा है'. यह गाना क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम जी का है जो बांग्ला साहित्य के प्रख्यात कवि हैं। तो इस गाने से मुझमें शिउली फूल को जानने की इच्छा जगी। अब तक आप मेरे अन्य लेखों  को पढ़ कर ये समझ गए होंगे कि मेरा प्रकृति और उसके सौंदर्य के प्रति काफी रुझान है और ऐसा बचपन से है। तो अब शिउली की खोज से मैंने क्या पाया वो मैं आपको भी बताना चाहती हूँ। तो शुरू करें ?

सबसे पहले ये जान लेते हैं कि हरसिंगार को शिउली, शेफाली, पारिजात, प्राजक्ता आदि कई नामों से जाना जाता है और इसे कई बार गलती से चमेली और जूही भी समझ लिया जाता है। परन्तु जूही-चमेली के फूलों से हरसिंगार के  फूलों की बनावट, खुशबू और पौधे की ऊंचाई बहुत भिन्न है जिसकी वजह से इनको एक मानना सरासर ग़लत है। हरसिंगार का पेड़ मध्यम आकार का होता है जिसकी ऊंचाई १० से १२  मीटर तक होती है। इसके पत्तों का आकार पान के पत्तों से मिलता जुलता है परन्तु पूरी तरह से गोलाकार नहीं  है। पत्ते बड़े, बीच में से ज़रा गोल, थोड़े लम्बे और ऊपर की तरफ ज़रा से नुकीले, मोटी परत वाले एवं खुरदुरे से होते है जिनका रंग गहरा हरा होता है। इसके फूल सफ़ेद रंग के, छोटे आकार के, पांच से आठ पंखुड़ियों वाले जैसे की जूही - चमेली के होते हैं ठीक वैसे ही हैं। मगर इनकी एक विशेषता है कि इन फूलों के बीच में नारंगी रंग का डंठल होता हैं जिसकी वजह से इनको जूही- चमेली से आसानी से पृथक किया जा सकता है। इस वृक्ष का तना राख के रंग जैसा, फल चपटा और दो बीजों वाला होता है। यह मूलतः दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया का वृक्ष है जिसे जंगलों में कम और मनुष्यों द्वारा बाग़-बगीचों, घर के आंगनों, मंदिर के प्रागणों में चाव और श्रद्धा से उगाया जाता है। यह वृक्ष लगभग समस्त भारत में पाया जाता है। हिन्दू और बौद्ध धर्मों में इस वृक्ष को अति विशिष्ठ स्थान प्रदान किया गया है।  शास्त्रों के अनुसार ये वृक्ष देवताओं का सबसे प्रिय वृक्ष है। इस वृक्ष को लेकर देवताओं  के बीच हुए कई विवादों और युद्धों का वर्णन पौराणिक गाथाओं में  मिला  है।  इसकी उपयोगिता की जितनी व्याख्या की जाये वह कम है क्यूंकि इसकी तुलना कल्पवृक्ष या इच्छापूर्ति वृक्ष से की गयी है। इसके फूल बहुत नाज़ुक होते हैं जो केवल रात को ही खिलते हैं। दिन- दोपहर की धूप को  ये फूल नहीं झेल पाते हैं।  इनकी  कोमलता का अंदाज़ा आप इस बात से  लगा सकते हैं कि ये सूरज की पहली किरण का तेज भी नहीं सह पाते और डाली से टूट कर गिर जाते हैं।  इसके बीज, पत्ते, तने की छाल और फूल इन सभी का उपयोग आयुर्वेदिक उपचार में किया जाता है। ये सभी पदार्थ किसी न किसी रोग का निवारण करने के लिए काम में लाये जाते हैं जिनमें से प्रमुख हैं - ज्वर, अपच,  पित्त और पेट से जुडी समस्या, वात रोग, गठिया आदि। इसके फूलों का प्रयोग विशेष तौर पर पूजा में ईश्वर को अर्पित  करने के लिए किया जाता है। सौंदर्य प्रसाधन बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। फूलों से कपड़ों को रंगने का रंग बनाया जाता है। फूल और पत्तों दोनों को ही भोजन के रूप में इस्तेमाल किया जाता  है। विशेष तौर पर बंगाल, असम और उड़ीसा में भोजन के तौर पर इसका प्रचलन देखा गया है जो वहीं तक सीमित है। दूसरे राज्यों में इसे खाने का चलन नहीं है।  हरसिंगार से परिचय की यात्रा अब यहाँ समाप्त होती है। 


परन्तु जाने से पहले आपके विचार करने के लिए एक प्रश्न छोड़ जाना चाहती हूँ। जैसा कि मैंने शुरू में कहा था कि प्रकृति से प्रेरित कहानियों, फिल्मों, कविताओं और गानों ने मुझमें कई चीज़ों के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ाई  है। ऐसा शायद आप में से बहुतों के साथ होता होगा ! तो इसका अर्थ यह हुआ कि लेखक, कवि, साहित्यकार अपने अनुभव, ज्ञान और प्रभाव से लोगों की सोच और समाज को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। वे चाहें तो हमारे समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं और प्रकृति के प्रति जागरूकता बढ़ा सकते हैं। इसलिए ये उनकी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वे समाज के उन सभी पहलुओं को सामने रखें जिनसे हमारा समाज एक प्रकृतिप्रेमी और भद्र समाज के रूप में सामने आये और यह पता चले कि हमारा समाज न केवल प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को समझता है बल्कि उसका पालन भी करता है। ऐसी स्थिति में दुनियाभर के देश हमें सम्मान की दृष्टि से देखेंगे। इस ज़िम्मेदारी को भारतीय साहित्यकारों ने अभी तक बखूबी निभाया है। परन्तु, मुझे इस बात की चिंता है कि हमारी वर्तमान पीढ़ी जिसमें प्रकृति में और प्रकृति से प्रेरित साहित्य में रूचि कम होती दिख रही है, ऐसे में वो अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देकर जाएगी ? इसलिए कम से कम हम अपने जीवन काल में यथासंभव अपने प्राचीन साहित्य, जिसमें प्रकृतिप्रेम की व्याख्या है, उसको न केवल संभालकर रखें अपितु कभी-कभी किसी सन्दर्भ में उसे वर्तमान पीढ़ी के सामने पेश भी करें ! इस बारे में आपका क्या सुझाव है ?

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