पेड़-पौधों की दुनिया
पलाश
हिंदी भाषा में प्रयोग होने वाला एक बहुत ही प्रचलित मुहावरा है 'ढाक के तीन पात'। जब मैं एक विद्यार्थी थी मैंने कई बार अपने शिक्षकों को इस मुहावरे का प्रयोग करते हुए सुना था। परन्तु सच मानिये, भले ही मुझे मुहावरे का अर्थ याद हो गया था मगर यह जानने की उत्सुकता हमेशा से थी कि आखिर ये ढाक है क्या? तभी से मेरी खोज शुरू हुई। समझ लीजिये कि इस लेख की प्रेरणा वहीं से मिली। ढाक की खोज करते हुए मैंने न केवल ये जाना कि ढाक असल में एक पेड़ का नाम है बल्कि यह भी जाना कि यह वृक्ष कितनी खूबियों से भरा है। इस मुहावरे की उत्पत्ति इस पेड़ के पत्तों की इस विशेषता से हुई है कि वे तीन के समूह में उगते हैं और इसके इस गुण में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। तो जब किसी व्यक्ति या परिस्तिथि में हमें कोई बदलाव नहीं दिखता है तो हम कहते है ," फिर वही ढाक के तीन पात "। खैर में इस मुहावरे का विश्लेषण न करते हुए मुद्दे पर आती हूँ। तो आज का मेरा लेख ढाक के वृक्ष पर केंद्रित है जहाँ मैं इस वृक्ष से जुड़ी कुछ भौगोलिक बातें बताउंगी।
पहली बार मैंने इस वृक्ष को छात्रावस्था में ही देखा था। स्कूल से आते-जाते कई बार मैंने कई तरह के पेड़ देखे और उनके बारे में जानने की कोशिश की परन्तु इस विशेष पेड़ पर कभी गौर नहीं किया। तो कई सालों तक मुझे इसके बारे में कुछ पता नहीं चला। परन्तु एक बार अचानक ही फाल्गुन-चैत्र के महीने में मैंने इसका फूलों से लदा हुआ रूप देखा तो मैं इसकी सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गयी। पता करने पर ये जाना कि यह तो पलाश का वृक्ष है जिसे हम ढाक भी कहते हैं। मुझे ख़ुशी हुई कि अब मुझे ढाक के पेड़ की पहचान हो गई। मैंने ये पाया कि यह वृक्ष अन्य सभी उष्ण पर्णपाती वनस्पति में पाए जाने वाले वृक्षों की तरह ही मध्यम आकार का होता है। इस वृक्ष के पत्ते न केवल तीन के समूह में होते हैं बल्कि कुछ मोटे किस्म के और एक तरफ से थोड़े मखमली और दूसरी तरफ से थोड़े चमकीले आवरण वाले होते हैं। इसके पत्ते इतने मोटे होते हैं कि जानवरों को खिलाने के काम में नहीं आते। मगर इनको पत्तल बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। वैसे तो इसकी लकड़ी नरम किस्म की होती है पर पेड़ का तना सीधा न होने की वजह से लकड़ी का इस्तेमाल बहुत ज़्यादा नहीं हो पाता। फिर भी पूजा इत्यादि में इसके प्रयोग का विधान है।अब बात करते है इसके आकर्षक फूलों की। इसके फूलों को टेसू के फूल कहते हैं। ये फूल नौकाकार होते हैं जिनका रंग लाल, केसरिया और गहरे पीले रंगों का मिश्रण सा होता है। जब पूरा का पूरा पेड़ फूलों से लदा हुआ होता है और कई सारे पेड़ एक झुण्ड में खड़े रहते हैं तब ये जंगल की आग की तरह दिखते है और इसलिए इसे अंग्रेज़ी में फ्लैम ऑफ़ द फारेस्ट कहा जाता है। इसके फूल गुणों की खान हैं। ये फूल सौंदर्य प्रसाधन बनाने के काम आते हैं। होली का रंग और कपड़ो को रंगने वाला रंग इनसे बनाया जाता है। इन फूलों को कई सारी आयुर्वेदिक औषद्धि में इस्तेमाल किया जाता है। अब बात इसके फलों की। इसका फल फलीनुमा होता है जिसके बीज औषधि बनाने के काम आते हैं। इसके आलावा तने और जड़ की छाल को भी कई तरह से उपयोग में लाया जाता है। इसकी गुणवत्ता और सौंदर्य के कारण कवियों, लेखकों और आयुर्वेदिक औषधाचार्यों में यह वृक्ष बहुत लोकप्रिय है।
अब इसके भौगोलिक वितरण पर नज़र डालते हैं। यह मुख्य तौर पर उष्ण कटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय इलाकों में पाया जाने वाला वृक्ष है। हम इसे भारत और उसके पड़ोसी देश तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में देख सकते हैं। भारत में यह लगभग सभी राज्यों में पाया जाता है परन्तु वृक्षों की कटाई की मार इस वृक्ष ने बहुत ज्यादा झेली है जिसकी वजह से यह रिहायशी इलाकों में आम तौर पर कम दिखता है।
एक भूगोलवेत्ता की नज़रों से पलाश की ये व्याख्या आपको कितनी सटीक लगी, यह ज़रूर बताएं। मैं जानती हूँ कि इस वृक्ष के बारे में जो जानकारी मैंने दी है वह बहुत कम है परन्तु इसके महत्व का वर्णन एक लेख में संभव भी नहीं है। इसलिए मैं आशा करती हूँ कि आप भी इसके बारे में पता करेंगे और सबके साथ उसे बांटेंगे। शायद इसी तरह हम विलुप्त होती हुई कई चीज़ों को सहेज कर रख पाएंगे और उनके महत्व को बरक़रार रख पाएंगे।
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